अब वक्त नहीं
मिलता
लोगों को मिलने
मिलाने का
जाने कहां रिवाज
गया
हाल पूछने को
घर आने का
हो जाती हैं मुलाकातें,
न हाथ मिलते
हैं न गले
जाने खोया कहां
अदब
चाय पर घर बुलाने
का
उलझाना सुलझी लटों को
उतारना अरमान पन्नों
पर
काश दौर वो लौट
आए
तकियों में ख़त
छुपाने का
आती नही खुशबू खानों की
अब पडोस के रसोईखानों से
दावतों का बदला चलन, गया
मौसम बिठाकर खिलाने का
अदबो लिहाज पिछडेपन की
निशानियां हुयी हैं जब से
दुआ सलाम गुमनाम हुये
हाय बाय से काम चलाने का
पलभर में गहरा इश्क हुआ
पल में ताल्लुक खत्म हुये
पल में फिर दिल लगा कही
है वक्त नही अश्क बहाने का
सच में आधुनिक हुये है या
जा रहें अंधेरी गर्त में सब
जी पलाश तू अपने लहजे से
नही फायदा यहां समझाने का
ये आधुनिकता नहीं ज़रूरत है
जवाब देंहटाएंगले लगने से कोरोना का डर है .
दूर से ही खुश हो लिया कीजिये ये सोच कर
कि रहे जिंदा तो तो खुश हो लेंगे गले मिल कर .
अच्छी प्रस्तुति
Ji, jaroor, aapne ek agal hi najariya de diya
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-03-2021) को "रंगभरी एकादशी की हार्दिक शुफकामनाएँ" (चर्चा अंक 4015) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 24 मार्च 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बेहतरीन सृजन।
जवाब देंहटाएंबादर।
अदबो लिहाज पिछडेपन की
जवाब देंहटाएंनिशानियां हुयी हैं जब से
दुआ सलाम गुमनाम हुये
हाय बाय से काम चलाने का
सुंदर व्यंग्य१--ब्रजेंद्रनाथ
Pranam , rahna pasand kar apna aasirwad dene k liy bahut dhanyawaad
हटाएंपलभर में गहरा इश्क हुआ
जवाब देंहटाएंपल में ताल्लुक खत्म हुये
पल में फिर दिल लगा कही
है वक्त नही अश्क बहाने का
बस,लिखों फेकों का जमाना है,कहाँ से ठहराव मिलेगा। हम बचपन के पहली पेन जो पापा देते थे वो भी संभलकर रखते थे
अब उस जमाने वाले हम कहाँ समझ पाएंगे आज का चलन ,सुंदर भावाभिव्यक्ति ,सादर
Kamini ji, thank you so much for coming at blog and appreciating the writing.
हटाएंबहुत खूब , सच ही है आदमी के पास आदमी को देने के लिए वक्त नही,हर बात पते की, बहुत ही सुंदर पलाश जी
जवाब देंहटाएंJyoti ji,
जवाब देंहटाएंThanks for visiting and appreciation for writing
बहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत एवं मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत बहुत आभार
हटाएंपलभर में गहरा इश्क हुआ
जवाब देंहटाएंपल में ताल्लुक खत्म हुये
पल में फिर दिल लगा कही
है वक्त नही अश्क बहाने का
वाह...बहुत खूब