पिछले कुछ दिनों अपने परिवारिक मंगल कार्यो में व्यस्त होने के कारण अखबार और टीवी से दूर ही रही। कल रात मेरे एक परम मित्र ने मुझे जुनैद पर लिखने के लिये प्रेरित किया। तुरन्त ही जुनैद के प्रति भाव आया कि निश्चित तौर पर जुनैद के साथ कुछ अप्रिय य अवांछनीय ही हुआ होगा। तुरन्त ही मीडिया के हर माध्यम से रात भर जुनैद के बारे में पढती रही। मुझे जुनैद के साथ हुयी बर्बरता पर कुछ नही लिखना, वो काम तो मीडिया ने कर दिया, तो फिर मुझे क्या लिखना चाहिये, जिसकी अपेक्षा मेरे मित्र ने मुझसे की।
जुनैद की हत्या स्पष्ट रूप से नफरत का परिणाम दिखती है। नफरत की
चरम सीमा जहाँ व्यक्ति जानवर में कब परिणित हो जाता है , इसका आभास खुद उसे भी नही
होता। और शायद मेरा जानवर कहना भी उचित नही क्योकि जानवर भी अपने आप किसी को क्षति
नही पहुचाते जब तक उनको आपसे खतरे का अनुभव ना हो। अपने बचाव की प्रक्रिया में ही वह
आपको चोट देता है, यहाँ निश्चित तौर पर मै यह कह सकती हूँ कि कोई भी जानवर हत्या करने
जैसी भावना नही रखता।
स्पष्ट रूप से दिखता है कि नफरत व्यक्ति को जानवरों से भी बदतर बना
देती है और वह जो यह भी नही जानता कि क्यो वह आपकी नफरत का पात्र है, वह यातना झेलता
है, जीवन खोता है, उसके बच्चे यतीम होते है, उसके माता पिता अपनी आखों के सामने अपने
लाडले को खून से लथपथ देखने को विवश होते हैं।
क्या ऐसे ही भारत को हम विश्व स्तर पर ले जाने की कल्पना कर रहे
हैं। भले ही दुनिया भर के देश भारत को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में देखने लगे हों मगर
मुझे भारत का यह खोखलापन साफ तौर से नजर आता है। चाहे कितने ही गीतों में हम हिन्दू-
मुसलिम – सिक्ख- इसाई, आपस में सब भाई भाई होने की बात कह ले, मगर ना जाने कितने दिलों
में यह जहर आज भी भरा हुआ है। कोई भी धर्म या जाति का व्यक्ति सिर्फ इस लिये अच्छा
या बुरा नही हो जाता कि वह एक विशेष जाति या धर्म है।
जुनैद हत्याकांड ना पहली घटना है ना आखिरी, जहाँ तक मै देख पाती
हूँ इस देश में कुछ लोग नफरत के बीज बोने का ही काम करते है, उनका घर नफरत की फसल से
ही चलता है। वो जानते है कि जिस दिन लोग मिल जुल कर रहने लगे, उनका जीवन खतरे में आ
जायगा।
सभ्य समाज की कल्पना में ऐसे व्यक्तियों का जब तक अस्तित्व होगा,
कल्पना सिर्फ कल्पना बन कर ही रह जायगी।
कुछ देर के लिये आपको इस घटना से दूर ले चलती हूँ
जरा सोचिये आप स्वयं किसी भी दूसरे धर्म के प्रति कितना उदार
है? आप किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के साथ कितना सहज होकर बात कर पाते है? आप किस स्तर
तक उसके साथ अपने आप को जुडा हुआ महसूस कर पाते है? क्या निकटता बनाते समय आपके मन
मस्तिष्क में उसके दूसरे धर्म के होने की बात चलती नही रहती?
कभी विचार किया ऐसा क्यों होता है? क्या भीड में किसी दूसरे धर्म
के व्यक्ति को देखकर आपके मन में कुछ नकारात्मक प्रतिक्रिया जन्म लेती है? यदि हाँ
तो यकीन मानिये आप भी नफरत का बीज लिये बैठे हैं। पता नही किस धर्म की हम लोग बात
करते हैं, बडी आसानी से हम लोग दूसरे धर्म के लोगो पर उंगली उठा देते है। अपने को अच्छा
बताने का इससे सरल उपाय और हो भी क्या सकता है कि दूसरे को बुरा कह दिया जाय।
मै पूंछती हूँ अगर जुनैद ने उस समय अपनी पारम्परिक पोशाक ना पहनी
होती, अपने पहनावे से वह किसी धर्म विशेष का ना दिख रहा होता, तब भी क्या वही होता
जो हुआ? कैसे उसके पहनावे से उसका आचरण निर्धारित कर दिया गया? कैसे उसके साथ वो सब
किया गया जो कदाचित नही किया जाना था? कैसे वहाँ उपस्थिति लोग मूक दर्शक बन अपनी सहमति
देते रहे? क्यो पुलिस विभाग ऐसे लोगो को ढूंढने और सजा देने की प्राथमिकता सुनिश्चित
नही कर पा रहा?
क्या जो आज जुनैद के साथ हुआ वो कल किसी जतिन, जॉन या जसविन्दर के साथ नही हो सकता?
तो क्या नफरत के इस खेल का अन्त सारी मानव जाति के अन्त पर जा कर ही खत्म होगा?
क्या ऐसे ही देश को हम कहते रहेगें मेरा भारत महान?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-07-2017) को "विश्व जनसंख्या दिवस..करोगे मुझसे दोस्ती ?" (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'