जबसे
घर से आयी हूँ, किसी काम में मन नही लग रहा था, पापा ने अल्टीमेटम सा दे दिया था कि
इस साल के लास्ट तक शादी कर दूंगा, शादी के बाद ससुराल वाले कहे तो नौकरी करो या ना
कहे तो ना करो, ये वो जाने और तुम जानो। अब हमे हमारी जिम्मेदारी से निवॄत्त होने दो।
मैने कई बार कहने की कोशिश की कि अभी एक साल मुझे और दे दीजिये, मगर मुझे भी पता था
कि उनका कहना पत्थर की लकीर थी। रात भर इसी उलझन में रही, सुबह आंख देर से खुली। आज
काम वाली आंटी भी नही आयी, तभी याद आया आज हेड ऑफिस मीटिंग के लिये जाना है। फटाफट
तैयार होकर बिना नाता किये ही निकल पडी। बस भी मिली तो एकदम भरी, मगर देर हो रही थी,
सो चढ गयी।
जगह
मिलने का तो सवाल ही नही था। बसों में ऐसी स्थितियां तो मलचले लडकों/ आदमियों के लिये
मुह मांगी मुराद सी होती हैं। और हम लडकियां, इस सब को इगनोर करने की आदत डाल लेती
हैं कि तो रोज की ही बात है कहाँ तक अपना दिमाग खराब करें, मगर मेरा तो आज आलरेडी दिमाग
खराब था सो आज इगनोर करने की बजाय रिएक्ट कर दिया। क्यो धक्का दिया बोलो- कह कर मैने
अपना प्रतिरोध दर्ज किया। सॉरी मैडम मगर मैने जानकर नही किया, वो पीछे से मुझे भी धक्का
आया, तो आपको भी लग गया, मै गलत नही । उसने ऐसी आवाज और अभिनय के साथ कहा कि प्रथम
दॄष्ट्या तो कोई भी उसको मासूम समझ ले। मगर मै धोखे में आने वाली नही थी। मैने भी बिना
कुछ और सोचे एक तमाचा उसके गाल पर जड दिया। वो बोला- क्या मैडम मै आपसे आप कह कर बात
कर रहा हूँ और आप बद्तमीजी कर रही हैं। उसको रोकते हुये मैने कहा- ओह अब आपको ये बद्तमीजी
लगी, और आपने जो हरकत की वो क्या थी। तब तक और भी लोग जो अभी तक मूकदर्शक बने थे, उन्हे
याद आया कि वे सभी लोग सुनने और देखने के साथ बोल भी सकते हैं। और फिर अन्तोगत्वा उसको
बस से उतारने के बाद बस आगे बढी। जाने क्यो मन में एक अलग सी शान्ति का अहसास हुआ।
अहसास हुआ कि हाँ अब भी मुझमें इतनी शक्ति है कि अपने लिये गलत होते हुये सब कुछ सहन
नही कर सकती।
जैसे
जैसे महीने बीत रहे थे, मुझे पिता जी की बात डराती जा रही थी कि इस साल वो मेरी शादी
कर ही देंगे। कल पन्द्रह अगस्त था, और मुझे मेरी आजादी खो जाने का भय हो रहा था। ऐसा
नही था कि के मै शादी नही करना चाह रही थी या कोई मेरे जीवन में था, मै बस खुद को कुछ
समय देना चाह रही थी, कुछ बनना चाह रही थी, और शादी की जिम्मेदारी के लिये खुद को तैयार
नही कर पा रही थी।
इस
बार मेरे ऑफिस में यह तय किया गया था कि हम लोग इस बार ऐसे लोग के साथ यह दिन मनायेगें
जो समाज में रह कर भी समाज से कुछ अलग से हो गये हैं/या कर दिये गये हैं। ऑफिस में
तीन अलग अलग टीम बनाई गयी थी- एक टीम को जाना था अनाथालय, दूसरी को वॄद्धाश्राम और
तीसरी को पागलखाने। मुझे पागलखाने वाली टीम में डाला गया था।
सुबह
ऑफिस में झंडारोहण के बाद हम सब लोग अपनी अपनी टीम लेकर निकल गये। पागलखाने में एक
व्यक्ति को देखकर मेरे मन में उसके लिये किसी भी प्रकार की दया या सहानुभूति का भाव
नही आया। मै वहाँ के डॉक्टर के पास गयी। मुझे देखकर डॉक्टर साहब बहुत खुश हुये- बोले
आज पहली बार कोई इन लोगो के साथ कोई त्योहार मनाने आया है। आप यकीन करिये मिस मधु ये
लोग पागल जरूर है मगर मै पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि व्यक्ति के भावों को पूरी
तरह समझ सकते हैं। आपकी टीम ने आज सच में एक बहुत अच्छे काम की पहल की है। तभी मैने
डॉक्टर साहब को बीच से रोकते हुये बोला- डॉक्टर मुझे ये बताइये कि ये १२५ नम्बर वाला
मरीज यहाँ कब आया?
अचानक
डॉक्टर के चेहरे पर एक दर्द उभर आया- थोडा सोचते हुये बोले- जानती हो मधु ये कौन है,
ये मेरे हास्पिटल का एक होनहार डॉक्टर था, एक लकडी के कारण आज इसका ये हाल हो गया।
अभी
कुछ देर पहले तक मेरे मन में इस व्यक्ति के लिये ये भाव था कि भगवान के घर देर है अंधेर
नही, उस दिन बस में मेरे साथ गलत कर रहा था, और आज तीन ही महीनों में ईश्वर ने यहाँ
पहुंचा दिया। मगर डॉक्टर की बात के बाद मन में उसके बारे में और जानने की इच्छा हुयी।
मन में बहुत सारे प्रश्न जन्म लेने लगे। कुछ प्रश्नों के उत्तर में वह भला व्यक्ति
दिखने लगा, मगर फिर भी अभी तक उसको सदचरित्र मानने का मन नही हुआ। मैने थोडा बेरुखी
से पूंछा- क्यों किसी ने धोखा दे दिया था क्या? वो बोले- नही, ऐसा कुछ नही हुआ था।
आज
से करीब तीन महीने पहले, एक दिन शाम को ये मेरे पास आया और बोला- सर मैने आज कुछ गलत
नही किया, फिर भी बिना मेरी बात सुने, मुझे गलत ठहरा दिया गया। जीवन भर मैने यही कोशिश
की कि कभी कुछ गलत ना करूं। जानते है सर- आज बिना बात सुने मेरी होने वाली पत्नी भी
मुझे छोडकर चली गयी। जानती हो मधू – यह उस समय इतना रो रहा था जैसे कोई बच्चा रो सकता
है।
मेरे
मन की कौतुहल बढती ही जा रही थी, मैने कहा – किसे बात के लिये इसको गलत ठहराया गया
था।
थोडा
सा सांस भरते हुये डॉक्टर बोले- बात, बात तो ऐसी कुछ भी नही थी, मगर उस बात ने इसकी
जिन्दगी उजाड के रख दी। हुआ बस इतना था कि उस दिन इसकी कार खराब हो गयी थी और ये अपने
मरीज को देखने बस से जा रहा था। बस में किसी लडकी ने उस पर झूठा आरोप लगा दिया कि इसने
उसको परेशान करने की कोशिश की, इतना ही नही उस लडकी ने बिना इसकी बात सुने इसको थप्पड
मार दिया, इसको धक्के मार कर पब्लिक ने बस से उतार दिया। इस बात ने इसको अन्दर से बहुत
दुखी कर दिया। पूरा दिन ये बहुत अनमना सा दिखा, एक दो दिन बाद जब इसकी अपनी मंगेतर
से बात हुयी तो इसने अपने दुखी होने का कारण बताया, वो भी इस पर विश्वास ना कर सकी,
और शादी टूट गयी। शादी टूट जाने के लिये घर वालों ने भी इसके आचरण को ही दोषी माना।
सब
कुछ ये बर्दाश्त नही कर सका। जो आदमी कल तक पागलों का बेस्ट डॉक्टर हुआ करता था आज
वो खुद एक पागल बन कर इलाज करा रहा है।
कुछ
देर पहले मै जिस व्यक्ति के बारे में जितना बुरा सोच रही थी, उससे कही ज्यादा अब खुद
की नजर में अपराधी बन गयी थी। मै ही तो जिम्मेदार थी उसको यहाँ तक पहुंचाने की। अपनी
उलझनों अपने गुस्से में क्यो मै नही देख सकी थी कि हर लडका बदनीयत नही रखता। मुझे वो
चेहरा याद आने लगा जब वो कह रहा था मैडम मै गलत नही।
मै कभी कल्पना भी नही कर सकती थी कि बिना पूरी बात समझे मेरा किया गया गुस्सा और गुस्से में उठे कदम से किसी की जिन्दगी में भूचाल भी आ सकता है। मगर अब क्या? क्या मुझे अब चुप रहना चाहिये, क्या मेरा मात्र अपनी गलती का अहसास करना पर्याप्त है? क्या मुझे कुछ नही करना चाहिये? क्या आज आजादी के दिन भी मुझे इसको इसके दुखों तकलीफों से आजाद करने में मदद नही करनी चाहिये?
अगले
ही पल मैं निश्चय कर चुकी थी कि मुझे क्या करना है? मुझे अपनी गलती का प्रायश्चित करना
ही होगा, और इस व्यक्ति को वो सब देना ही होगा जिसका वो हकदार है। मुझे अपनी जिम्मेदारी
निभानी होगी।
मै
तुरन्त हास्पिटल से बाहर निकल आयी और पापा को फोन किया- पापा नमस्ते, आप मुझसे शादी
करने को कह रहे थे ना, मै तैयार हूँ मगर पापा शादी अब मै अपनी मर्जी से करूंगी, मै
घर आकर आपको सब कुछ बताती हूँ और यकीन मानिये पापा आप भी सब जानकर कहोगे कि मै गलत
नही।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (20-07-2017) को ''क्या शब्द खो रहे अपनी धार'' (चर्चा अंक 2672) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वैसे पुरुष आमतौर पर इतने भावुक नहीं होते लेकिन अपवाद हर जगह है .सच है कभी कभी छोटी सी भूल किसीकी ज़िन्दगी उजाड़ देती है
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’देश के प्रथम नागरिक संग ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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