वो गुलाबी
कागज का टुकडा
जो, पड गया
है पीला
जैसे
पड गयी है
फीकी
मेरी गुलाबी
चमक
वक्त के साथ ।
रखा है, आज
भी सहेज कर
कुरान की
आयतों में
जिसमें
अल्फाज़ नही
लिख कर दिये
थे तुमने
अहसास ।
जिसमें लिखते
रहे
हम तुम
हर लम्हा
और बनती गयी ज़िन्दगी
एक खूबसूरत ग़ज़ल ।
सच
कितना आसान हो जाता है
कुछ कहना
कुछ लिखना
अहसासों की जुबान में
जहाँ
लफ्ज़, दीवार नही बनते
न गुंजाइश रहती है
हम तुम
हर लम्हा
और बनती गयी ज़िन्दगी
एक खूबसूरत ग़ज़ल ।
सच
कितना आसान हो जाता है
कुछ कहना
कुछ लिखना
अहसासों की जुबान में
जहाँ
लफ्ज़, दीवार नही बनते
न गुंजाइश रहती है
गलतफहमियों की
बस बहते जाते हैं
एक ही रौ में
हाथों में हाथ लिये
कहते जाते हैं
सुनते रहते हैं।
नही करना पडता इन्तज़ार
कहने के लिये
चुप होने का
एक ही पल में
दोनो कहते हैं
दोनो सुनते हैं
और लिखते रहते हैं
उसी, गुलाबी कागज के टुकडे में
जो पड गया है पीला
जिसे सहेज कर रखा है
कुरान की आयतों में।
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन रचना ,वाह !आभार
जवाब देंहटाएं"एकलव्य"
अच्छी रचना है। हमारे ब्लाग पर भी आएँ। आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंhttps://lokrang-india.blogspot.in/