कल ऑफिस पहुंची
तो मिसेज कौल ने बोला- इन्द्रा तुम कल जम्मू चली जाओ, एक हफ्ते की वर्कशॉप के लिये,
जाना तो मुझे था लेकिन कल ही मेरे सास ससुर घर आ गये हैं और मम्मी जी का आँख का ऑपरेशन
कराना है, तो मै किसी भी हालत में नही जा सकती। मेरी जगह तुम इसे अटेंड कर आओ।
बहुत मन तो
नही था, मगर कई सालों से वैष्नोदेवी जाने का सोच रही थी और जा नही पा रही थी, सोचा
शायद ये माँ का ही बुलावा हो, और मिसेज कौल मेरी सीनियर से ज्यादा दोस्त थी, तो उनको
ना करने का तो प्रश्न भी नही था।
इलाहाबाद
से जम्मू करीब एक दिन का सफर था, और मैने इतना लम्बा सफर कभी नही किया था, सो स्टेशन
पर तीन चार शिवानी जी के नॉवेल खरीद लिये, सोचा सफर ठीक कट जायगा। बहुत दिनो से कुछ
अच्छा पढा भी नही था।
इन्डियन रेल तत्काल में शायद ही किसी को अपने मन की सीट देता है, कम से कम मेरा तो हमेशा ऐसा
ही अनुभव रहा। मम्मी के लिये कभी भी सीट करानी होती तो मै लोअर बर्थ का प्रिफरेन्स
देती हूँ मगर मिलती है अपर या मिडिल बर्थ। और अपने लिये हमेशा जब अकेले सफर करना हो
तो देती हूँ अपर बर्थ और मिल जाती है लोअर बर्थ। मेरे ख्याल से तो तत्काल रिसर्वेसन
फार्म से सीट च्वाइश का ऑप्शन ही हटा देना चाहिये।
खैर अब जो
भी हो, सफर तो करना ही है, सोचा मिसेज कौल होती तो लोअर सीट पाकर खुश हो जाती, अपने
घुटनो के दर्द के कारण तो उन्होने अपना ऑफिस फस्ट फ्लोर से ग्राउंड फ्लोर पर करा लिया
था।
हम दोनो ही
अपने अपने वेट से परेशान थी, अक्सर वो कहती भी इन्द्रा तुम मेरा पाँच दस किलो वेट ले
लो तो दोनो का भला हो जाय, और फिर जोर का ठहाका लगाती। उनकी उनमुक्त हसी से मेरा वेट
भले ना बढता हो मगर रक्त संचार जरूर बढ जाता था।
अपने कम्पार्टमेंट
मे गयी तो देखा मेरे और एक अंकल जी के अलावा सारे ही सहयात्री सिपाही थे, सिपाहियों के
बारे में मेरे मन में आदर का भाव है किन्तु कई बार कुछ ऐसा सुना था जिससे मन मे थोडा
डर भी लगा। चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गयी और अभी अभी स्टेशन पर खरीदा हुआ शिवानी जी का
नॉवेल अपराजिता पढने लगी।
थोडी देर
में अपर बर्थ में लेटे एक सिपाही सहयात्री ने कहा- मैडम क्या और भी नॉवेल है आपके पास?
मुझे आश्चर्य हुआ- सोचने लगी क्या सिपाही लोग भी किताबें पढते है, मै तो समझती थी कि
ये लोग सिर्फ बन्दूकों और बारूदों की दुनिया में रहते हैं, तभी आवाज आयी- सॉरी, आपको
डिस्टर्ब किया, मुझे लगा अगर आपके पास एक्स्ट्रा बुक हो तो मै भी पढ लेता, सॉरी। मैने
कहा- अरे नही नही सॉरी की क्या बात, मेरे पास और भी तीन नॉवेल है मगर है सभी शिवानी
जी के, आपको पसन्द हैं शिवानी जी।
उसने कहा-
पसन्द क्या मैने अभी तक उनका कोई नॉवेल नही पढा, मगर हाँ अगर आप मुझे पढने को देगीं
तो शायद पसन्द भी करने लगूं। मैने हल्का सा मुस्कराते हुये, बैग में रखा चौदह फेरे
निकाल कर दे दिया।
पढते पढते
करीब १२ बज गये, ध्यान ही नही रहा कि कम्पार्टमेंट के बाकी लोगो को लाइट से प्राबलम
भी हो रही होगी, सोचा लाइट बन्द कर सोने की कोशिश की जाय, तभी देखा अपर बर्थ मे बैठा
सहयात्री कुछ लिख रहा था, मुझे देख कर बोला – थैंक्स फॉर नावेल, वाकई अच्छा है, मगर
मेरा कुछ लिखने का मन करने लगा, सो मैने इसका नाम नोट कर लिया, कभी जरूर खरीदुंगा।
मैने नावेल वापस लेते हुये कहा- प्लीज आप जब सोइयेगा तो लाइट ऑफ कर दीजियेगा, और मैं
सोने की कोशिश करने लंगी।
सुबह मेरी
नींद काफी देर से खुली वो भी चाय वाले की आवाज सुन कर। अभी तक मिडिल बर्थ वाले अंकल जी सो रहे थे, वरना शायद सीट खोलने
के कारण वो मुझे जगा देते। और अब उठते ही लगने लगा, अंकल जी भी अब उठ जाए तो अच्छा हो,
ठीक से बैठ कर चाय पी जाय, सोचते हुये मै वॉशरूम की तरफ बढ गयी।
वापस आयी
तो देखा मिडिल बर्थ खुल चुकी थी। मै फैला हुआ कम्बल समेटने लगी तभी एक पेपर पर मेरी
नजर पढी, हाथ से कुछ लिखा हुआ था, हमेशा से पढने की शौकीन रही हूँ सोचा कि शायद कोई
कहानी लिखी हो, तो पढने लगी, मगर ये क्या – ये तो उस अपर बर्थ वाले का लिखा हुआ लग
रहा था, शायद कल रात ये यही लिख रहा था, उसको वापस देने के इरादे से ऊपर नजर दौडाई
तो बर्थ खाली थी, शायद रात में ही या सुबह उसका स्टेशन आ चुका था।
उसमे लिखे
को पूरा पढने के लालच से खुद को बचा न सकी, और पढने लगी, उसमे लिखा था-
ऐसा बहुत
कुछ है जो मै कहना चाह रहा था मगर कह नही सका, ऐसा बहुत कुछ है जो मै कहना नही लिखना
ही चाहता हूँ, कुछ शब्द कहने से अपना पूरा आकार लेते हैं कुछ पढने से। मेरी, मुझे
तुम्हारा ये नाम तुम्हारे और हमारे सम्बन्ध की पूर्ण परिभाषा लगता है और तुम्हारा मुझे
मेरे कहना मेरे जीवन को जीवन्त कर देता है।
मै घर से
दूर आ कर भारत माँ की सेवा पूरे तन मन से कर पा रहा हूँ क्योकि तुमने अपना तन मन मेरे
माता पिता की सेवा में लगा दिया है। मै आज तुम्हे अपने मन की बात कहता हूँ वैसे शायद
कहने की जरूरत नही क्योकि तुम मुझे मुझसे भी ज्यादा जानती हो, फिर भी कहता हूँ जो तुम
माँ पिता जी के लिये कर रही हो, जिस तरह से तुमने सारे रिश्तों को एक धागे मे पिरो
रखा है, मै कभी नही कर सकता। मुझे ये आता ही नही। मै सीधा सीधा लड सकता हूँ गोली मार
भी सकता हूँ और खा भी सकता हूँ, मगर तुम जो करती हूँ वो आसान नही। मेरे जीवन लक्ष्य
को पूर्ण करने में तुमने सहर्ष अपने जीवन की आहुति दी है।
अक्सर कभी
बर्फ पर खडे हुये या तपती रेत पर लेटे हुये जब तुम्हारी याद यादी है यकीन मानों मौसम
बदल जाता है, बर्फीली हवाओं में तुम आग बनकर और तपती रेतीली हवाओं में तुम शीतलता बन
कर आ जाती हो। तुमसे यह कहना पूर्ण नही कि मै तुमको बहुत प्यार करता हूँ, तुम प्रेम
की सीमाओं से परे होकर मुझे प्रेम करती हो।
जानती हो,
जब तुम मेरे पैर छूती हो, उस समय मै बस यही सोचने लगता हूँ कि काश मुझमे दुनिया के
रीति रिवाजों को तोड सकने की हिम्मत होती और मै अपनी देवी के पैर छू पाता। तुम कहती
हो कि तुमने मुझे ईश्वर को प्रसन्न करके पाया है, मै सोचता हूँ कि मै तो कभी मन्दिर
तक नही गया, फिर कैसे ईश्वर ने मेरे हाथ में संसार की सर्वश्रेष्ठ स्त्री का हाथ दे
दिया। मै यकीन से कह सकता हूँ तुम्हारी की हुयी पूजा का फल तुम्हे नही मुझे मिला है।
तुमसे मुझे
कभी कुछ मांगने की आवश्यकता ही नही हुयी, तुमने स्त्री के हर रूप को ओढ कर मेरा साथ
दिया है। आज युद्ध के लिये जाने को अगर मै तन मन से तैयार हो सका तो यह तुम्हारे ही
कारण तो है, वरना सच कहता हूँ मैने फौज की नौकरी बस ये सोच कर कर ली थी, कि यहाँ ठीक
ठाक तनख्वाह मिल जायगी, और खूब सारी सुविधायें होंगी। मगर तुमने ही मुझे मेरी जिम्मेदारियों
का अहसास दिलाया। आज गर्व से सिर उठा कर सिर कटाने को तैयार हूँ। मुझे नही पता कि इस
युद्ध का क्या परिणाम होगा, मै सशरीर घर आऊंगा या सिर्फ शरीर आयगा, मगर इतना पता है
कि मेरी आत्मा हमेशा तुम्हारे ही साथ रहेगी।
तुम इस जनम
में मेरी हो और हर जनम में मेरी ही रहोगी, ये मेरा विश्वास है।
तुम्हारा
मेरे
वाह ! अत्यंत हृदयस्पर्शी कहानी ! कितना बड़ा सच है इन पंक्तियों में ! सिपाही के परिवार का हर सदस्य अपने अपने मोर्चे पर अपने अपने युद्ध ही तो लड़ता है ! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंकहानी हृदय स्पर्शी और नारी के महत्व को रेखांकित करते हुए एक सिपाही के माध्यम से सीमा पर देश की सुरक्षा में डेट वीर जवानों के मन की हृदयगाथा का स्पर्श कराते हुए रेल विभाग के द्वारा किये जा रहे कार्य को ......है| रचनाधर्मिता बहत बहुत बधाइयां !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-07-2017) को "ब्लॉगरों की खबरें" (चर्चा अंक 2671) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती, हृदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना। एक छोटी सी कहानी में ही इतनी आसानी से कितने भाव, कितने विचार समाहित कर दिए।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी कहानी ... एक सैनिक की वीरता के पीछे उसका परिवार होता है ...
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी कहानी ........केवल सिपाही ही नहीं मोर्चे पर लड़ता उसका परिवार भी लड़ता है तभी वो निश्चिन्त रहता है .
जवाब देंहटाएंकहानी हृदयस्पर्शी के साथ चिरस्मरणीय भी है,कितना अच्छा लिखती हैं आप !!!
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