दिनो के अर्थ
भी उम्र के हिसाब से बदलते रहते हैं। मुझे याद है, कभी बचपन में भी इतवार का इन्तजार
करता था, अपनी युवा अवस्था में भी किया और आज जब प्रौढावस्था की तरफ बढ रहा हूँ तब
भी इतवार का इन्तजार करता हूँ मगर अवस्था के साथ साथ इतवार के होने के अर्थ भी बदलते
रहे। बचपन में इतवार का मतलब होता था, मास्टर जी की डांट डपट से एक दिन की मुक्ति,
नाश्ते में पुन्नू हलवाई की जलेबी, और दोस्तों के साथ गली में क्रिकेट।
जैसे जैसे
बडा होता गया, मास्टर साहब की डांट की जगह ऑफिस के बॉस की डांट ने ले ली, दोस्तों के
बजाय जीवन में आ गये दो प्यारे से बच्चे- रिया और नवीन, और हफ्ते भर का बचा घर काम,
बाजार से सब्जी सौदा लाना वगैरह वगैरह।
इधर कुछ समय से इतवार
को सामान लाने के काम की जिम्मेदारी नवीन सम्भालता है, खेलने के लिये अभी पोते पोतियों
का आना बाकी है सो निकल जाता हूँ कभी शर्मा जी या कभी माथुर जी के पास। हाँ डांट का
सिलसिला आज तक नही टूटा, स्थाई रूप से यह कार्यभार मेरी धर्मपत्नी ने ले लिया है।
कल रात नवीन
के साथ जी एस टी पर लम्बी बहस होती रही, सो सुबह नींद थोडा देर से खुली। चाय पी कर
पेपर पढने बैठा तभी अस्थाना जी का फोन आ गया- बोले आ जाओ सब की महफिल जमी है बस तुम्हारी
ही कमी है। अभी स्नान ध्यान भी नही हुआ था, फिर ख्याल आया आज तो इतवार है, भगवान जी
भी आज सनडे मना लें इस ख्याल से कुर्ता पाजामा डाला और निकलने के क्रम में नवीन की बहू
प्रीती से जो मेज टेबल पर डस्टिंग कर रही थी, थोडा ऊंची आवाज में ये सोचते हुये कहा ताकि रसोई के
काम में लगी श्रीमती जी के कानों तक भी मेरी बात पंहुच जाय - बहू अस्थाना जी से मिल
कर आता हूँ, और इतनी चाल से बाहर की तरफ निकला ताकि श्रीमती जी तक मेरी बात पहुंचने
और उनके कुछ काम बताने के पहले मै निकलना सुनिश्चित कर सकूं। मेरे पास ऐसा करने के
पीछे एक कारण भी था, अस्थाना जी की आदत थी वो ज्यादातर सबको अपने घर बुला लिया करते
थे, जबकि वो घर में अकेले ही थे, दो वर्ष पहले उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था, और
उनका एकमात्र पुत्र विदेश में ही सेटल हो गया था। उनका कहना था कि सबके आने से घर में
जरा देर को ही सही रौनक हो जाती है। और मेरी पत्नी जी का कहना था कि कभी उनको घर से
बाहर भी निकलना चाहिये। वैसे खुद इतनी सहद्य थी कि उनकी पत्नी के स्वर्गवास के बाद
से तो कभी कुछ भी अच्छा बनाती तो सबसे पहले उनका हिस्सा निकाल कर रख दिया जाता जो या
तो मै देकर आता या नवीन। और जब मै कहता कि बुला लेता हूँ, देने क्या जाना तो कहती-
ना, बुलाया तो कोई बहाना कर देंगे पर आयेंगे नही, बहू के आने से थोडा संकोच करने लगे
हैं। जाओ देकर आओ, तभी मिलेगा खाना। तब मै, मन ही मन उसकी इस बात से खुश होता और ऊपर
से झूठमूठ का गुस्सा दिखाता चला जाता।
आज बातों
का सिलसिला ऐसा निकला कि एक कब बज गया पता ही नही चला, मगर अब घर जा कर मेरे बारह बजने
तय थे, मुझे खयाल आया कि मै तो यहाँ समोसे और जलेबी खा चुका मगर मेरी देवी जी ने केवल
चाय भर पी होंगी, खाना बन चुका होगा, बहू और बेटे को खिला कर मेरा इन्तजार हो रहा होगा।
घर में कदम रखते ही सुनाई देगा- आ गये आप, अरे मुझे तो लगा आज वही रहने वाले हैं, आज
चालीस साल हो गये शादी को हमेशा कहती हूँ बता तो दिया करो कब तक आओगे मगर नही ये कैसे
बता दिया जाय, घर में है ना एक मूरख, करती रहे इन्तजार अपनी बला से। और सबसे बडी मुसीबत
तो ये होती कि ऐसी स्थिति में मै यह निर्णय नही कर पाता कि चुप रह जाऊं या कुछ बोलूं।
क्योकिं बचाव तो दोनो ही स्थितियों में नही होता। फिर भी आज मैने चुप रह जाने का निर्णय
लेते हुये घर में चुपचाप कदम रखा और अखबार पढने का नाटक सा करने लगा।
मगर ये क्या,
आज तो घर के किसी कोने से कोई आवाज ही नही आ रही। थोडा परेशान थोडा निश्चिन्त भी हुआ।
तभी जाने कहाँ से चाय की तलब चढी। मैने कहा- अरे प्रीती बेटा एक कप चाय मिलेगी क्या?
उत्तर में अन्दर कमरे से श्रीमती जी की आवाज आयी- बच्चे पिक्चर देखने गये हैं, बनाती
हूँ रुको जरा ये बटन टांक लूँ। मै फिर से अखबार में खो गया मगर इस बार सच में खबर ही
पढ रहा था।
अचानक कुछ
याद आया और किचन तक पहुंच गया, श्रीमती जी चाय के लिये अदरक कूट रही थी। शायद थोडी
देर पहले ही वो नहा कर आयी थी, गीले बालों के जूडे से टपकता पानी इस बात की गवाही दे
रहा था। मैने धीरे से किचन में कदम रखते हुये उन्हे वैसे ही पकड लिया जब पहली बार मेरा
और उनका रसोई में मिलन हुआ था और उन्होने हडबडा कर कहा था – कोई आ जायगा। ये क्या आज
भी उनके मुंह से यही निकला- क्या करते है कोई आ जायगा। मैने कहा- कौन आ जायगा , अभी
तो आप ही कह रही थी कि बच्चे पिक्चर देखने गये है। अब तक उनको भी याद आ गया कि ये तो
उन्होने अपने आदत के कारण कहा है। बनावटी गुस्से के लहजे में बोलीं- आप भी क्या साठ
के होने को है, कुछ तो अपनी सफेदी का लिहाज कीजिये। और मै कुछ सोचता हुआ, मुस्करा कर
वापस कमरे में आ कर अखबार पढने लगा।
थोडी देर
में श्रीमती जी चाय ले कर आयीं और हाथ से अखबार लेकर मेल पर रखकर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी। हम दोनो ही चाय पीने लगे। चाय की प्याली खतम कर बोलीं- सुनिये बच्चे कह रहे थे कि राबता बढियां पिक्चर
है, चलेंगें क्या?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-7-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2679 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 18वां कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
रेखांकित करती हूँ इस रचना को
सादर
वाह ! साठ के इस इतवार को पढ़कर मैं तो साठ का इंतजार करने लगी हूँ क्योंकि अभी तो....
जवाब देंहटाएंदिल ढूँढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन...
Thanks Meena ji, for reading and liking the story. I would like to share one thing with you, by the time when I just opened my blog and reading your commend, same time I was listing the same song to which you referred. Really a amazing coincidence.
जवाब देंहटाएंThank u mam.That's really amazing !!!
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